Sunday, June 27, 2010

तुम गैर हो.....

तुम गैर हो ये कह नहीं सकती
तुम दिल में हो ऐसा भी नहीं है
चलते ही चलते ये फासले बढ़ गए कैसे
तुम से दूर जी  लूँगी  ये कह नहीं सकती

तुम्हारे दिल में कोई कोना मेरे लिए बचा होगा
मेरा दिल तो जाने कब से टुटा पड़ा है
फिर टूटे दिल में कोई कोना कहाँ से लाउ
जिस में तुम्हारा अक्श छुपा हुवा हो...........

1 comment:

Anonymous said...

दीक्षा जी , जहाँ तक मुझे लगता हैं आपका नाम हिंदी में ऐसे ही लिखते होंगे | अगर गलती हो तो माफ़ कीजियेगा.....आपकी शुरू की दो रचनाएँ पड़ी.....बहुत ही खुबसूरत लिखा है आपने अहसासों के साथ... आपका लिखने का अंदाज़ अच्छा लगा आपने ब्लॉग को शेर -ओ- शायरी का नाम दिया है ...पर मुझे आपकी रचनाओ में नज्मो का अहसास ज्यादा लगा.....नीलिमा वाली पोस्ट बहुत अच्छी लिखी है आपने.......आपकी दूसरी पोस्ट जो मैंने पड़ी उसमे कई मात्रात्मक गलतियाँ है और आपको पता ही है की हिंदी भाषा में मात्रा की गलती वाक्य का अर्थ ही बदल देती है....जैसे आपकी पोस्ट से ही..."चलते ही चलते ये फासले बढ़ गए कैसे तुम से दूर जी लुंगी ये कह नहीं सकती " यहाँ "लुंगी" नहीं "लूँगी" होगा | मैं जनता हूँ इतना तो आपको पता ही होगा पर मैं सिर्फ इतना बताना चाहता हूँ की अर्थ कितने बदल जाते है|

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