Thursday, September 30, 2010

ये दूरीयां

ये दूरीयां ये सिसकियाँ ,ये घुटती हुई जिंदगी
हथेली के रेखाओं से मिटती हुई जिंदगी...

क्या पाता कब तलक, रहेगी रात बाक़ी
लौ धीमी जलती कभी बुझती हुई जिंदगी.

तलाश तो ता उम्र, रही हमें फूलों की
हर सू मगर काटों से चुभती हुई जिंदगी.

दामन तेरा थामा तुने,झटक के यूं दूर किया
परछाई को तेरी फिर भी ढुंढती हुई जिंदगी..

तूफानों की ख़ता ही क्या,साहिलों ने दग़ा दिया
दुनियां की खुदगर्ज़ी में लुटती हुई जिंदगी.....