बन्द दरवाज़ा और एक छोटी सी खिड़की
कमरे मे फैली हुई उदासी की बदबू
तुम अभी अभी जाने से पहले
जो मुझ पर चिल्लाये थे
तुम्हारी वो तेज़ आवाज़
अभी तक इसी कमरे में
घुम रही है,
जैसे की अवाज़ीं की तरंगें घुमती रहती हैं
हवाओं म घुल घुल कर, पूरे वायुमंडल में
खिड़की, हल्की सी खोल लेती हूँ
थोड़ी सी रौशनी कमरे में आती है
जैसे इसे कितनी जल्दी हो अन्दर आने की
बाहर देखती हूँ,दूर दूर तक जाते अनजाने रास्ते
और उन रास्तों से गुजरते हुए लोग
एक तमन्ना जाग उठती है
में भी चलूँ इन अनजाने राहों मे
दूर बहुत दूर तलक
मुझे खबर भी न हो
कहाँ तक जाना है,बस इतना ही
बस इतना मालूम हो
लौट कर वापस नहीं आना है
फिर इन्ही बेतुके से ख़यालों मे
दिल आजाद पंछी की तरह नाचने लगा
और मैंने जल्दी से खिड़की बन्द करदी
कहीं मुझे आदत न पड़ जाये सपने देखने की
क्यों की हक़ीकत तो अभी भी यही है
बन्द दरवाज़ा और ये छोटी सी खिड़की.....
बहुत बार सोचा मैंने
में उठाउंगी पहला कदम
में अब सारी दूरियां मिटा दूंगी
और जिंदगी फिर से मुस्कुराने लगेगी
उफ़.......
क्या होता....कुछ भी नहीं.....
मैंने बहुत बार अपनी मेहँदी की खुशबू से..
इस उदासी की बदबू को मिटाना चहा
वो नहीं माना,वो फिर कभी मेरा हुवा ही नहीं
वो उसी बदबू में जीने लगा, और
और में जीने से ज्यादा घुटने लगी
अब सोचती हूँ,काश के कभी
कभी वक़्त लौट आता
तो तब के बिगड़े इस जिंदगी के हिसाब को
कैसे भी करके सही करती
और 'round figure' में उसे तब्दील करती
फिर न उसका न मेरा, हिसाब बराबर
पर... ये सिर्फ मेरा
दिमागी फितूर के अलाबा कुछ भी नहीं....
मैं इन दिनों ,बस ख़यालों में ही ऐसा किया करती हूँ
मेरा मतलब,'round figure'और हिसाब बराबर
फिर कहती हूँ ''लो,अब हिसाब बराबर हुवा
न तुम्हारा कुछ बाकी रहा न मेरा
चलो अब तो छोडो
मेरी वजूद से क्यों चिपके हुए हो''
मैं केवल ''नीलिमा'' हूँ ''नीलिमा''
मैं आज बहुत खुश हूँ
''देखो मैंने आज अपने नाम के पीछे
तुम्हारा नाम नहीं लगाया''
''नीलिमा''नीलिमा''''नीलिमा''
वाह, कितना प्यारा है मेरा नाम
और मुझे
बहुत महोब्बत है अपने इस नाम से.........
5 comments:
वाह!!!वाह!!! क्या कहने, बेहद उम्दा
flow me chalti kahani jaise drishy skaar karti khoobsurat kavita...
दीक्षा जी,
मैंने पहले भी कहा है की लफ्जों पर आपकी पकड़ अच्छी है.....कहते हैं कोई वही लिखता है ....जो उसने कभी खुद भोगा हो .....या बहुत करीब से महसूस किया हो .....आपकी रचनाओ में वही अनुभूति होती है .......एक सच का अहसास होता है ....हालाँकि काव्य और नज़्म की द्रष्टि से ये रचना कही नहीं ठहरती.......पर सिर्फ इसलिए की ऐसा लगता है जैसे ये लफ्ज़ सीधे दिल से निकल रहे है...जैसे आंसू निकलते हैं ...उन्हें नहीं पता की बह के कहाँ जाना है ......वैसे ही आपके लफ्ज़ भी भटकने के बावजूद .....खुबसूरत हैं क्योंकि ये एक दिल की सच्ची व्यथा को बयां कर रहे हैं ....... एक बार फिर कहता हूँ की कृपया हिंदी की मात्रात्मक गलतियों पर ज़रूर ध्यान दे .........इससे कई बार भाव बिगड़ जाते है .......अगर कुछ गलत कह दिया हो तो माफ़ कीजियेगा.
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