जिंदगी की कहानी बदलती रही.
लड़खड़ाई कभी फिर संभलती रही..
क्या जाने क्या हुवा इस सफ़र में भला.
हुई सुबह नहीं रात ढलती रही..
क़िस्सा-ए-जिंदगी क्या बताऊ तुम्हे.
वो हुवा न मेरा हाथ मलती रही..
तुम से मिलने की चाहत को दिल में लिए.
मैं बहाने से घर से निकलती रही..
तुम को पाने की धुन में क्या क्या न किया.
तुमने देखा नहीं में संवरती रही..
कोई इल्म न तुम को रहा आज तक.
हसरतें मेरी तनहा ही जलती रही..
4 comments:
जिंदगी की कहानी बदलती रही.
लड़खड़ाई कभी फिर संभलती रही..
तुम से मिलने की चाहत को दिल में लिए.
मैं बहाने से घर से निकलती रही..
उम्र की तमाम कशमकश से भरी रचना ...अपनी मंजिल तक पहुंचने की छटपटाहट लिए तेज रफ्तार अदरसगी. इज़हार..क़ाबिलेइस्तकबाल..
मुबारक
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अदरसगी को अदायगी पढ़ें .
अच्छा,
तक़लीफ़ न करें , लीजिए फिर से पढ़ें....
उम्र की तमाम कशमकश से भरी रचना ...अपनी मंजिल तक पहुंचने की छटपटाहट लिए तेज रफ्तार अदायगी. इज़हार..क़ाबिलेइस्तकबाल..
सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।
भाव पक्छ से मुकम्मल रचना। लगता है आपको उर्दू बहर की जानकारी है क्यूंकि 3 मिसरे पूरी तरह छंद मे हैं कुछ मिसरों में गर आपने छंद को जान बूझ कर तोड़ा है तो ये अदब के हुस्न के लिये ना-इंसाफ़ी कह लायेगी।- बहरहाल मुबारक बाद।
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